साल 1907 में सावरकर बंधुओं Savarkar brothers की पुश्तैनी जायदाद अंग्रेज सरकार ने जब्त कर ली
साल 1911 में सावरकर Savarkar brothers के श्वसुर की सारी संपत्ति भी अंग्रेज सरकार द्वारा जब्त कर ली गई। उसी वर्ष बंबई विश्वविद्यालय द्वारा सावरकर की बीए की डिग्री वापस ले ली गई।
लंदन से वकालत की डिग्री पूरी करने के बावजूद उन्हें बार में स्थान नहीं दिया गया। इस तरह काला पानी से जिंदा लौटे सावरकर के पास मात्र 10वीं पास की शैक्षिक योग्यता रह गई थी।
उनकी लिखी सारी किताबों पर पाबंदी थी इस तरह किसी प्रकार रॉयल्टी मिलने की संभावना भी नहीं थी।
बड़े भाई बाबा राव स्ट्रेचर पर जेल से रिहा हुए थे। तो ऐसे में पूरा परिवार सबसे छोटे भाई नारायण राव की डिस्पेंसरी पर निर्भर था। अहमदाबाद बम धमाके में पकड़े गए और नासिक षड़यंत्र केस में छह माह की जेल काट चुके नारायण राव पर और उनसे इलाज कराने आने वालों पर भी पुलिस की सख्त नजर रहती थी।
ऐसे स्थिति में एक बार सावरकर को लगा कि इससे बेहतर स्थिति तो शायद काला पानी में ही थी कम से कम वहां रोटी का संकट नहीं था। इन तमाम परेशानियों के बीच केसरी के संपादक ने सावरकर परिवार की देखरेख के लिए एक अनुदान समिति का गठन किया।
वहीं महाराष्ट्र के कई गणमान्य लोग ऐसी अनुदान समिति बनान के विरोध में खड़े हो गए। कड़ी पाबंदी झेल रहे सावरकर ने अपने एक भाषण में कहा कि ,” अभी भी कुछ ऐसे रास्ते खुले हैं जहां मैं बेरोकटोक काम कर सकतू हूं, जैसे कि हिन्दू समाज को एकजुट करना, वैज्ञानिक और साहित्यिक रचनाएं लिखना परंन्तु अगर मैं इन क्षेत्रों में भी काम न कर सकू तो मैं उन युवाओं के पैर दबाने का ही काम कर लूंगा जो मातृभूमि का सेवा करके निढाल हो चुके हैं।”
केवल साढ़ चारे माह में सावरकर परिवार की सहायता के लिए स्थापित किए गए सहायता कोष ने महारष्ट्र भर से 12,757 रुपए और 210 रुपए विदेश से एकत्र कर लिए।
अंग्रेज सरकार के बार-बार कार्यक्रम बदलवाने और भारी दबाव के बीच चांदी के कलश में 11,989 रुपए नगद और तिलक की गीता रहस्य की एक प्रति उन्हें भेंट की गई।
14 साल पहले जब सावरकर जेल गए थे तब भी उनके पास केवल एक ऐनक और एक आने की छोटी गीता ही बची थी।
ये आर्थिक सहायत स्वीकारते सावरकर ने बेहद भावुक शब्दों में कहा कि,” मैं कैसे सोच सकता था कि ये बेड़ियां एक दिन फूल बन जाएंगी। युवाओं को केवल मेरी महिमामंडन न करके वीरता में मुझसे भी आगे निकलना चाहिए।
मैं यह अनुदान आपसे बिना पूछे दी गई पिछली सेवाओं के लिए स्वीकार नहीं कर रहा हूं, बल्कि भविष्य में की जाने वाली राष्ट्र सेवा के लिए प्रोत्साहन स्वरूप स्वीकार कर रहा हूं ” इस घटना के करीब 75 साल बाद विश्व की पहली क्राउडफंडिग करके बनाई गई फिल्म भी वीर सावरकर ही थी।
इधर अब 100 वर्षों के बाद राष्ट्रवादी धीरे-धीरे क्राउडफंडिंग की विधा में महारथ हासिल कर रहे हैं। हम ये जान गए है कि कि हमारे लिए फंडिंग करने के लिए कोई चर्च या वेटिगन नहीं बैठा है न साउदी से हमारे लिए भर-भर कर पैसा आना है।
यहां तो हमें ही एक दूसरे का कंधा बनना है इसलिए दिल्ली दंगों के पीड़ितों के लिए 1 करोड़ रुपए जुटाना हो या झारखंड के रुपेश पांडेय के लिए 14 लाख रुपए इकट्ठा करना हो धीरे-धीरे समाज में अब ये समझ भी विकसित हो रही है।
जो कि बेहद आवश्यक है Savarkar brothers
विनायक सावरकर का जन्म महाराष्ट्र (उस समय, ‘बॉम्बे प्रेसिडेन्सी’) में नासिक के निकट भागुर गाँव में हुआ था। उनकी माता जी का नाम राधाबाई तथा पिता जी का नाम दामोदर पन्त सावरकर था। इनके दो भाई गणेश (बाबाराव) व नारायण दामोदर सावरकर तथा एक बहन नैनाबाई थीं।
जब वे केवल नौ वर्ष के थे तभी हैजे की महामारी में उनकी माता जी का देहान्त हो गया। इसके सात वर्ष बाद सन् 1899 में प्लेग की महामारी में उनके पिता जी भी स्वर्ग सिधारे।
इसके बाद विनायक के बड़े भाई गणेश ने परिवार के पालन-पोषण का कार्य सँभाला। दुःख और कठिनाई की इस घड़ी में गणेश के व्यक्तित्व का विनायक पर गहरा प्रभाव पड़ा।
विनायक ने शिवाजी हाईस्कूल नासिक से 1901 में मैट्रिक की परीक्षा पास की। बचपन से ही वे पढ़ाकू तो थे ही अपितु उन दिनों उन्होंने कुछ कविताएँ भी लिखी थीं। आर्थिक संकट के बावजूद बाबाराव ने विनायक की उच्च शिक्षा की इच्छा का समर्थन किया।
इस अवधि में विनायक ने स्थानीय नवयुवकों को संगठित करके मित्र मेलों का आयोजन किया। शीघ्र ही इन नवयुवकों में राष्ट्रीयता की भावना के साथ क्रान्ति की ज्वाला जाग उठी।
सन् 1901 में रामचन्द्र त्रयम्बक चिपलूणकर की पुत्री यमुनाबाई के साथ उनका विवाह हुआ। उनके ससुर जी ने उनकी विश्वविद्यालय की शिक्षा का भार उठाया। 1902 में मैट्रिक की पढाई पूरी करके उन्होने पुणे के फर्ग्युसन कालेज से बी॰ए॰ किया। इनके पुत्र विश्वास सावरकर एवं पुत्री प्रभात चिपलूनकर थी।
लन्दन प्रवास
1904 में उन्हॊंने अभिनव भारत नामक एक क्रान्तिकारी संगठन की स्थापना की। 1905 में बंगाल के विभाजन के बाद उन्होने पुणे में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई।
फर्ग्युसन कॉलेज, पुणे में भी वे राष्ट्रभक्ति से ओत-प्रोत ओजस्वी भाषण देते थे। बाल गंगाधर तिलक के अनुमोदन पर 1906 में उन्हें श्यामजी कृष्ण वर्मा छात्रवृत्ति मिली। इंडियन सोशियोलाजिस्ट और तलवार नामक पत्रिकाओं में उनके अनेक लेख प्रकाशित हुए , जो बाद में कलकत्ता के युगान्तर पत्र में भी छपे।
सावरकर रूसी क्रान्तिकारियों से ज्यादा प्रभावित थे]10 मई, 1907 को इन्होंने इंडिया हाउस, लन्दन में प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की स्वर्ण जयन्ती मनाई।
इस अवसर पर विनायक सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण में प्रमाणों सहित 1857 के संग्राम को गदर नहीं अपितु भारत के स्वातन्त्र्य का प्रथम संग्राम सिद्ध किय .
जून, 1908 में इनकी पुस्तक द इण्डियन वॉर ऑफ़ इण्डिपेण्डेंस : 1857 तैयार हो गयी परन्त्तु इसके मुद्रण की समस्या आयी। इसके लिये लन्दन से लेकर पेरिस और जर्मनी तक प्रयास किये गये किन्तु वे सभी प्रयास असफल रहे।
बाद में यह पुस्तक किसी प्रकार गुप्त रूप से हॉलैण्ड से प्रकाशित हुई और इसकी प्रतियाँ फ्रांस पहुँचायी गयीं। इस पुस्तक में सावरकर ने 1857 के सिपाही विद्रोह को ब्रिटिश सरकार के खिलाफ स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई बताया।
मई 1909 में इन्होंने लन्दन से बार एट ला (वकालत) की परीक्षा उत्तीर्ण की परन्तु उन्हें वहाँ वकालत करने की अनुमति नहीं मिली।इस पुस्तक को सावरकार जी ने पीक वीक पेपर्स व स्काउट्स पेपर्स के नाम से भारत पहुचाई थी।
इण्डिया हाउस की गतिविधियाँ
सावरकर ने लन्दन के ग्रेज इन्न लॉ कॉलेज में प्रवेश लेने के बाद इण्डिया हाउस में रहना आरम्भ कर दिया था। इण्डिया हाउस उस समय राजनितिक गतिविधियों का केन्द्र था जिसे श्याम प्रसाद मुखर्जी चला रहे थे।
सावरकर ने ‘फ़्री इण्डिया सोसायटी’ का निर्माण किया जिससे वो अपने साथी भारतीय छात्रों को स्वतन्त्रता के लिए लड़ने को प्रेरित करते थे। सावरकर ने 1857 की क्रान्ति पर आधारित पुस्तकें पढ़ी और “द हिस्ट्री ऑफ़ द वॉर ऑफ़ इण्डियन इण्डिपेण्डेन्स” (The History of the War of Indian Independence) नामक पुस्तक लिखी।
उन्होंने 1857 की क्रान्ति के बारे में गहन अध्ययन किया कि किस तरह अंग्रेजों को जड़ से उखाड़ा जा सकता है।
लन्दन और मार्सिले में गिरफ्तारी Savarkar brothers
लन्दन में रहते हुये उनकी मुलाकात लाला हरदयाल से हुई जो उन दिनों इण्डिया हाउस की देखरेख करते थे। 1 जुलाई 1909 को मदनलाल ढींगरा द्वारा विलियम हट कर्जन वायली को गोली मार दिये जाने के बाद उन्होंने लन्दन टाइम्स में एक लेख भी लिखा था।
13 मई 1910 को पैरिस से लन्दन पहुँचने पर उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया परन्तु 8 जुलाई 1910 को एम॰एस॰ मोरिया नामक जहाज से भारत ले जाते हुए सीवर होल के रास्ते ये भाग निकले। 24 दिसम्बर 1910 को उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गयी। इसके बाद 31 जनवरी 1911 को इन्हें दोबारा आजीवन कारावास दिया गया। इस प्रकार सावरकर को ब्रिटिश सरकार ने क्रान्ति कार्यों के लिए दो-दो आजन्म कारावास की सजा दी, जो विश्व के इतिहास की पहली एवं अनोखी सजा थी। सावरकर के अनुसार –
मातृभूमि! तेरे चरणों में पहले ही मैं अपना मन अर्पित कर चुका हूँ। देश-सेवा ही ईश्वर-सेवा है, यह मानकर मैंने तेरी सेवा के माध्यम से भगवान की सेवा की।
आर्बिट्रेशन कोर्ट केस
परीक्षण और दण्ड Savarkar brothers
ढींगरा के इस काम से भारत और ब्रिटेन में क्रांतिकारी गतिविधिया बढ़ गयी। सावरकर ने ढींगरा को राजनीतिक और कानूनी सहयोग दिया, लेकिन बाद में अंग्रेज सरकार ने एक गुप्त और प्रतिबन्धित परीक्षण कर ढींगरा को मौत की सजा सुना दी, जिससे लन्दन में रहने वाले भारतीय छात्र भड़क गये।
सावरकर ने ढींगरा को एक देशभक्त बताकर क्रान्तिकारी विद्रोह को ओर उग्र कर दिया था। सावरकर की गतिविधियों को देखते हुए अंग्रेज सरकार ने हत्या की योजना में शामिल होने और पिस्तौले भारत भेजने के जुर्म में फँसा दिया, जिसके बाद सावरकर को गिरफ्तार कर लिया गया। अब सावरकर को आगे के अभियोग के लिए भारत ले जाने का विचार किया गया।
जब सावरकर को भारत जाने की खबर पता चली तो सावरकर ने अपने मित्र को जहाज से फ्रांस के रुकते वक्त भाग जाने की योजना पत्र में लिखी। जहाज रुका और सावरकर खिड़की से निकलकर समुद्र के पानी में तैरते हुए भाग गए, लेकिन मित्र को आने में देर होने की वजह से उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया।
सावरकर Savarkar brothers की गिरफ्तारी से फ़्रेंच सरकार ने ब्रिटिश सरकार का विरोध किया।
पोर्ट ब्लेयर की सेलुलर जेल के सामने सावरकर की प्रतिमा
नासिक जिले के कलेक्टर जैकसन की हत्या के लिए नासिक षडयंत्र काण्ड के अन्तर्गत इन्हें 7 अप्रैल, 1911 को काला पानी की सजा पर सेलुलर जेल भेजा गया।
उनके अनुसार यहां स्वतंत्रता सेनानियों को कड़ा परिश्रम करना पड़ता था। कैदियों को यहां नारियल छीलकर उसमें से तेल निकालना पड़ता था।
साथ ही इन्हें यहां कोल्हू में बैल की तरह जुत कर सरसों व नारियल आदि का तेल निकालना होता था। इसके अलावा उन्हें जेल के साथ लगे व बाहर के जंगलों को साफ कर दलदली भूमी व पहाड़ी क्षेत्र को समतल भी करना होता था।
रुकने पर उनको कड़ी सजा व बेंत व कोड़ों से पिटाई भी की जाती थीं। इतने पर भी उन्हें भरपेट खाना भी नहीं दिया जाता था।। सावरकर 4 जुलाई, 1911 से 21 मई, 1921 तक पोर्ट ब्लेयर की जेल में रहे।
दया याचिका Savarkar brothers
1920 में वल्लभ भाई पटेल और बाल गंगाधर तिलक के कहने पर ब्रिटिश कानून ना तोड़ने और विद्रोह ना करने की शर्त पर उनकी रिहाई हो गई। सावरकर जी जानते थे कि सालों जेल में रहने से बेहतर भूमिगत रह करके उन्हें काम करने का जितना मौका मिले, उतना अच्छा है।
उनकी सोच ये थी कि अगर वो जेल के बाहर रहेंगे तो वो जो करना चाहेंगे, वो कर सकेंगे जोकि अण्डमान निकोबार की जेल से सम्भव नहीं था। कई लोगों द्वारा शुरू से ही उन्हें भारत रत्न की माँग की जा रही है।
रत्नागिरी में प्रतिबन्धित स्वतन्त्रता
1921 में मुक्त होने पर वे स्वदेश लौटे और फिर 3 साल जेल भोगी। जेल में उन्होंने हिन्दुत्व पर शोध ग्रन्थ लिखा। इस बीच 7 जनवरी 1925 को इनकी पुत्री, प्रभात का जन्म हुआ।
मार्च, 1925 में उनकी भॆंट राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक, डॉ॰ हेडगेवार से हुई। 17 मार्च 1928 को इनके बेटे विश्वास का जन्म हुआ। फरवरी, 1931 में इनके प्रयासों से बम्बई में पतित पावन मन्दिर की स्थापना हुई, जो सभी हिन्दुओं के लिए समान रूप से खुला था।
25 फरवरी 1931 को सावरकर ने बम्बई प्रेसीडेंसी में हुए अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मेलन की अध्यक्षता की।
1937 में वे अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कर्णावती (अहमदाबाद) में हुए 19वें सत्र के अध्यक्ष चुने गये, जिसके बाद वे पुनः सात वर्षों के लिये अध्यक्ष चुने गये। 15 अप्रैल 1938 को उन्हें मराठी साहित्य सम्मेलन का अध्यक्ष चुना गया।
13 दिसम्बर 1937 को नागपुर की एक जन-सभा में उन्होंने अलग पाकिस्तान के लिये चल रहे प्रयासों को असफल करने की प्रेरणा दी थी। 22 जून 1941 को उनकी भेंट नेताजी सुभाष चंद्र बोस से हुई। 9 अक्टूबर 1942 को भारत की स्वतन्त्रता के निवेदन सहित उन्होंने चर्चिल को तार भेज कर सूचित किया।
सावरकर जीवन भर अखण्ड भारत के पक्ष में रहे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के माध्यमों के बारे में गान्धी और सावरकर का एकदम अलग दृष्टिकोण था। 1943 के बाद दादर, बम्बई में रहे। 16 मार्च 1945 को इनके भ्राता बाबूराव का देहान्त हुआ।
19 अप्रैल 1945 को उन्होंने अखिल भारतीय रजवाड़ा हिन्दू सभा सम्मेलन की अध्यक्षता की। इसी वर्ष 8 मई को उनकी पुत्री प्रभात का विवाह सम्पन्न हुआ।
अप्रैल 1946 में बम्बई सरकार ने सावरकर के लिखे साहित्य पर से प्रतिबन्ध हटा लिया। 1947 में इन्होने भारत विभाजन का विरोध किया। महात्मा रामचन्द्र वीर नामक (हिन्दू महासभा के नेता एवं सन्त) ने उनका समर्थन किया।
हिन्दू राष्ट्रवाद
सावरकर 20वीं शताब्दी के सबसे बड़े हिन्दूवादी रहे। विनायक दामोदर सावरकर को बचपन से ही हिन्दू शब्द से बेहद लगाव था। सावरकर ने जीवन भर हिन्दू, हिन्दी और हिन्दुस्तान के लिए ही काम किया।
सावरकर को 6 बार अखिल भारतीय हिन्दू महासभा का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। 1937 में उन्हें हिन्दू महासभा का अध्यक्ष चुना गया, जिसके बाद 1938 में हिन्दू महासभा को राजनीतिक दल घोषित कर दिया गया।
हिन्दू राष्ट्र की राजनीतिक विचारधारा को विकसित करने का बहुत बड़ा श्रेय सावरकर को जाता है। उनकी इस विचारधारा के कारण आजादी के बाद की सरकारों ने उन्हें वह महत्त्व नहीं दिया जिसके वे वास्तविक हकदार थे।
15 अगस्त 1947 को उन्होंने सावरकर सदान्तो में भारतीय तिरंगा एवं भगवा, दो-दो ध्वजारोहण किये। इस अवसर पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए उन्होंने पत्रकारों से कहा कि मुझे स्वराज्य प्राप्ति की खुशी है, परन्तु वह खण्डित है, इसका दु:ख है।
उन्होंने यह भी कहा कि राज्य की सीमायें नदी तथा पहाड़ों या सन्धि-पत्रों से निर्धारित नहीं होतीं, वे देश के नवयुवकों के शौर्य, धैर्य, त्याग एवं पराक्रम से निर्धारित होती हैं ।
5 फरवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या के उपरान्त उन्हें प्रिवेन्टिव डिटेन्शन एक्ट धारा के अन्तर्गत गिरफ्तार कर लिया गया। 19 अक्टूबर 1949 को इनके अनुज नारायणराव का देहान्त हो गया। 4 अप्रैल 1950 को पाकिस्तानी प्रधानमन्त्री लियाक़त अली ख़ान के दिल्ली आगमन की पूर्व संध्या पर उन्हें सावधानीवश बेलगाम जेल में रोक कर रखा गया।
मई, 1952 में पुणे की एक विशाल सभा में अभिनव भारत संगठन को उसके उद्देश्य (भारतीय स्वतन्त्रता प्राप्ति) पूर्ण होने पर भंग किया गया। 10 नवम्बर 1957 को नई दिल्ली में आयोजित हुए, 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के शाताब्दी समारोह में वे मुख्य वक्ता रहे।
8 अक्टूबर 1949 को उन्हें पुणे विश्वविद्यालय ने डी०लिट० की मानद उपाधि से अलंकृत किया। 8 नवम्बर 1963 को इनकी पत्नी यमुनाबाई चल बसीं। सितम्बर, 1965 से उन्हें तेज ज्वर ने आ घेरा, जिसके बाद इनका स्वास्थ्य गिरने लगा।
1 फ़रवरी 1966 को उन्होंने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय लिया। 26 फरवरी 1966 को बम्बई में भारतीय समयानुसार प्रातः 10 बजे उन्होंने पार्थिव शरीर छोड़कर परमधाम को प्रस्थान किया ।
महात्मा गाँधी की हत्या में गिरफ्तार और निर्दोष सिद्ध
गांधीजी के हत्या में सावरकर के सहयोगी होने का आरोप लगा जो सिद्ध नहीं हो सका। एक सच्चाई यह भी है कि महात्मा गांधी और सावरकर-बन्धुओं का परिचय बहुत पुराना था। सावरकर-बन्धुओं के व्यक्तित्व के कई पहलुओं से प्रभावित होने वालों और उन्हें ‘वीर’ कहने और मानने वालों में गांधी भी थे।
सावरकर एक बुद्धिवादी व्यक्ति थे, परंतु कई प्रमाणोम से लगता है कि वे ईश्वर में विश्वास रखते थे। ‘मोपला’ पुस्तक की भूमिका में उन्होंने “ईश्वर कृपा…” ऐसा शब्दप्रसोग किया है। उनके समकालीन विद्वान आचार्य अत्रे ने “क्रांतिकारकांचे कुलपुरुष-सावरकर” में लिखा है कि उन्होंने दुर्गा देवी की मूर्ति के समक्ष स्वतंत्रता संग्राम में प्राणाहुति दनेतक की प्रतिज्ञा की। इससे उनकी आस्तिकता का पता चलता है।
सावरकर साहित्य
अखण्ड सावधान असावे ; 1857 चे स्वातंत्र्यसमर ; अंदमानच्या अंधेरीतून ; अंधश्रद्धा भाग 1 ; अंधश्रद्धा भाग 2 ; संगीत उत्तरक्रिया ; संगीत उ:शाप ; ऐतिहासिक निवेदने ; काळे पाणी ;
क्रांतिघोष ; गरमा गरम चिवडा ; गांधी आणि गोंधळ ; जात्युच्छेदक निबंध ; जोसेफ मॅझिनी ; तेजस्वी तारे ; प्राचीन अर्वाचीन महिला ; भारतीय इतिहासातील सहा सोनेरी पाने ; भाषा शुद्धी ;
महाकाव्य कमला ; महाकाव्य गोमांतक ; माझी जन्मठेप ; माझ्या आठवणी – नाशिक ; माझ्या आठवणी – पूर्वपीठिका ; माझ्या आठवणी – भगूर ; मोपल्यांचे बंड ; रणशिंग ; लंडनची
बातमीपत्रे ; विविध भाषणे ; विविध लेख ; विज्ञाननिष्ठ निबंध ; शत्रूच्या शिबिरात ; संन्यस्त खड्ग आणि बोधिवृक्ष ; सावरकरांची पत्रे ; सावरकरांच्या कविता ; स्फुट लेख ; हिंदुत्व ; हिंदुत्वाचे
पंचप्राण ; हिंदुपदपादशाही ; हिंदुराष्ट्र दर्शन ; क्ष – किरणें ‘द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेंस – १८५७’ सावरकर द्वारा लिखित पुस्तक है, जिसमें उन्होंने सनसनीखेज व खोजपूर्ण इतिहास
लिख कर ब्रिटिश शासन को हिला डाला था। अधिकांश इतिहासकारों ने 1957 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम को एक सिपाही विद्रोह या अधिकतम भारतीय विद्रोह कहा था।
दूसरी ओर भारतीय विश्लेषकों ने भी इसे तब तक एक योजनाबद्ध राजनीतिक एवं सैन्य आक्रमण कहा था, जो भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के ऊपर किया गया था।
सावरकर एक महान समाज सुधारक भी थे। उनका दृढ़ विश्वास था, कि सामाजिक एवं सार्वजनिक सुधार बराबरी का महत्त्व रखते हैं व एक दूसरे के पूरक हैं। उनके समय में समाज
बहुत सी कुरीतियों और बेड़ियों के बंधनों में जकड़ा हुआ था। इस कारण हिन्दू समाज बहुत ही दुर्बल हो गया था। अपने भाषणों, लेखों व कृत्यों से इन्होंने समाज सुधार के निरंतर प्रयास किए।
हालांकि यह भी सत्य है, कि सावरकर ने सामाजिक कार्यों में तब ध्यान लगाया, जब उन्हें राजनीतिक कलापों से निषेध कर दिया गया था। किन्तु उनका समाज सुधार जीवन पर्यन्त
चला। उनके सामाजिक उत्थान कार्यक्रम ना केवल हिन्दुओं के लिए बल्कि राष्ट्र को समर्पित होते थे। १९२४ से १९३७ का समय इनके जीवन का समाज सुधार को समर्पित काल रहा।
सावरकर के अनुसार हिन्दू समाज सात बेड़ियों में जकड़ा हुआ था।।
स्पर्शबंदी: निम्न जातियों का स्पर्श तक निषेध, अस्पृश्यता
रोटीबंदी: निम्न जातियों के साथ खानपान निषेध
बेटीबंदी: खास जातियों के संग विवाह संबंध निषेध
व्यवसायबंदी: कुछ निश्चित व्यवसाय निषेध
सिंधुबंदी: सागरपार यात्रा, व्यवसाय निषेध
वेदोक्तबंदी: वेद के कर्मकाण्डों का एक वर्ग को निषेध
शुद्धिबंदी: किसी को वापस हिन्दूकरण पर निषेध
सावरकरजी हिन्दू समाज में प्रचलित जाति-भेद एवं छुआछूत के घोर विरोधी थे। बम्बई का पतितपावन मंदिर इसका जीवन्त उदाहरण है, जो हिन्दू धर्म की प्रत्येक जाति के लोगों के लिए समान रूप से खुला है।। पिछले सौ वर्षों में इन बन्धनों से किसी हद तक मुक्ति सावरकर के ही अथक प्रयासों का परिणाम है।
राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी का समर्थन
हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए सावरकर सन् 1906 से ही प्रयत्नशील थे। लन्दन स्थित भारत भवन (इंडिया हाउस) में संस्था ‘अभिनव भारत’ के कार्यकर्ता रात्रि को सोने के पहले स्वतंत्रता के चार सूत्रीय संकल्पों को दोहराते थे।
उसमें चौथा सूत्र होता था ‘हिन्दी को राष्ट्रभाषा व देवनागरी को राष्ट्रलिपि घोषित करना’। अंडमान की सेल्यूलर जेल में रहते हुए उन्होंने बन्दियों को शिक्षित करने का काम तो किया ही, साथ ही साथ वहां हिन्दी के प्रचार-प्रसार हेतु काफी प्रयास किया।
1911 में कारावास में राजबंदियों को कुछ रियायतें देना शुरू हुई, तो सावरकर जी ने उसका लाभ राजबन्दियों को राष्ट्रभाषा पढ़ाने में लिया। वे सभी राजबंदियों को हिंदी का शिक्षण लेने के लिए आग्रह करने लगे।
हालांकि दक्षिण भारत के बंदियों ने इसका विरोध किया क्योंकि वे उर्दू और हिंदी को एक ही समझते थे। इसी तरह बंगाली और मराठी भाषी भी हिंदी के बारे में ज्यादा जानकारी न होने के कारण कहते थे कि इसमें व्याकरण और साहित्य नहीं के बराबर है।
तब सावरकर ने इन सभी आक्षेपों के जवाब देते हुए हिन्दी साहित्य, व्याकरण, प्रौढ़ता, भविष्य और क्षमता को निर्देशित करते हुए हिन्दी को ही राष्ट्रभाषा के सर्वथा योग्य सिद्ध कर दिया।
उन्होंने हिन्दी की कई पुस्तकें जेल में मंगवा ली और राजबंदियों की कक्षाएं शुरू कर दीं। उनका यह भी आग्रह था कि हिन्दी के साथ बांग्ला, मराठी और गुरुमुखी भी सीखी जाए।
इस प्रयास के चलते अण्डमान की भयावह कारावास में ज्ञान का दीप जला और वहां हिंदी पुस्तकों का ग्रंथालय बन गया। कारावास में तब भाषा सीखने की होड़-सी लग गई थी।
कुछ माह बाद राजबंदियों का पत्र-व्यवहार हिन्दी भाषा में ही होने लगा। तब अंग्रेजों को पत्रों की जांच के लिए हिंदीभाषी मुंशी रखना पड़ा।
सावरकर के प्रमुख कार्य, एक दृष्टि में
सावरकर भारत के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के केन्द्र लन्दन में उसके विरुद्ध क्रांतिकारी आन्दोलन संगठित किया।
वे भारत के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सन् 1905 के बंग-भंग के बाद सन् 1906 में ‘स्वदेशी’ का नारा दिया और विदेशी कपड़ों की होली जलाई।
वे भारत के पहले व्यक्ति थे जिन्हें अपने विचारों के कारण बैरिस्टर की डिग्री खोनी पड़ी।
वे पहले भारतीय थे जिन्होंने ‘पूर्ण स्वतन्त्रता’ की मांग की।
वे भारत के पहले व्यक्ति थे जिन्होंने सन् 1857 की लड़ाई को ‘भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम’ बताते हुए 1907 में लगभग एक हज़ार पृष्ठों का इतिहास लिखा।
वे भारत के पहले और दुनिया के एकमात्र लेखक थे जिनकी पुस्तक को प्रकाशित होने के पहले ही ब्रिटिश साम्राज्य की सरकारों ने प्रतिबन्धित कर दिया था।
वे दुनिया के पहले राजनीतिक कैदी थे जिनका मामला हेग के अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय में चला था।
वे पहले भारतीय राजनीतिक कैदी थे जिसने एक अछूत को मन्दिर का पुजारी बनाया था।
वे गाय को एक ‘उपयोगी पशु’ कहते थे।
उन्होने बौद्ध धर्म द्वारा सिखायी गयी “अतिरेकी अहिंसा” की आलोचना करते हुए केसरी में ‘बौद्धों की अतिरेकी अहिंसा का शिरच्छेद’ नाम से शृंखलाबद्ध लेख लिखे थे।
सावरकर, महात्मा गांधी के कटु आलोचक थे। उन्होने अंग्रेजों द्वारा द्वितीय विश्वयुद्ध के समय जर्मनी के विरुद्ध हिंसा को गांधीजी द्वारा समर्थन किए जाने को ‘पाखण्ड’ करार दिया।
सावरकर ने अपने ग्रन्थ ‘हिन्दुत्व’ के पृष्ठ 81 पर लिखा है कि – कोई भी व्यक्ति बगैर वेद में विश्वास किए भी सच्चा हिन्दू हो सकता है।
उनके अनुसार केवल जातीय सम्बन्ध या पहचान हिन्दुत्व को परिभाषित नहीं कर सकता है बल्कि किसी भी राष्ट्र की पहचान के तीन आधार होते हैं – भौगोलिक एकता, जातीय गुण और साझा संस्कृति।
जब भीमराव आम्बेडकर ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया तब सावरकर ने कहा था, “अब जाकर वे सच्चे हिन्दू बने हैं”।
सावरकर ने ही वह पहला भारतीय झंडा बनाया था, जिसे जर्मनी में 1907 की अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस में मैडम कामा ने फहराया था।
वे प्रथम क्रान्तिकारी थे जिन पर स्वतंत्र भारत की सरकार ने झूठा मुकदमा चलाया और बाद में उनके निर्दोष साबित होने पर उनसे माफी मांगी।
सावरकर ने भारत की आज की सभी राष्ट्रीय सुरक्षा सम्बन्धी समस्याओं को बहुत पहले ही भाँप लिया था। [20][21] १९६२ में चीन द्वारा भारत पर आक्रमण करने के लगभग दस वर्ष पहले ही कह दिया था कि चीन भारत पर आक्रमण करने वाला है।
भारत के स्वतंत्र हो जाने के बाद गोवा की मुक्ति की आवाज सबसे पहले सावरकर ने ही उठायी थी।