वामपंथियों से छिनते उनके हथियार

हममें से अधिकांश की पहली पसंद फेसबुक है।
यह स्वयं में परिपूर्ण मीडिया साधन है।
इसमें आप ही सम्पादक, पत्रकार, प्रकाशक और मुद्रक हैं।
वामपंथ के तिलिस्म को तोडने में इसके योगदान को सदैव याद किया जाएगा।
कभी मीडिया पर वामपंथी इकोसिस्टम का एकाधिकार था, आज भी उनका बाहुल्य है, लेकिन सोशल मीडिया के दबाव में आज पर्याप्त चैनल है जो हरेक एंगल से समाचार दे रहे हैं। अब कोई बात छिप नहीं सकती।
जब इंटरनेट आया, गूगल, यूट्यूब और विकिपीडिया पर इनकी तूती बोलती थी।
युट्यूब इनका सबसे सशक्त हथियार था।
बाद में राष्ट्रवादियों के कतिपय बौद्धिक यौद्धाओं ने इस क्षेत्र में मोर्चा संभाला, थोड़ा समय लगा किंतु आज वे वहाँ से भी खदेड़ दिए गए। आज युट्यूब पर इनका सूर्यास्त हो रहा है।
ट्विटर पर तो अभी अभी तक, इन्हीं का कब्जा था लेकिन वहाँ भी इन्हें कड़ी टक्कर मिल रही है और कम से कम, अब उनका झूठ तो बिल्कुल नहीं चल सकता।
लेकिन इन्हें पीछे धकेलने में सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण भूमिका रही फेसबुक की।
सोशल मीडिया में फेसबुक सबसे लोकप्रिय विधा है और आज भी जिज्ञासुओं, मध्यम वर्ग और सामान्य पढ़ने लिखने वालों के लिए यह सबसे सरल प्लेटफार्म है।
लाइक कमेंट और शेयर के सहज ऑप्शन से यह सूचना तंत्र और विश्लेषण का सबसे जबरदस्त माध्यम बनकर उभरा और वामपंथियों, कसाइयों और सेक्युलर जमात को इतिहास में पहली बार बड़ी पराजय मिली।
हालात यह हो गई कि पैड मीडिया ज्यों ही कोई नकली शेर क्रिएट करता, फेसबुकुये लक्कड़बग्घे उसे दो मिनट में कुत्ता साबित कर खदेड़ने लगे।
एक बड़ी पार्टी के सबसे बड़े नेता को पप्पू बनाने वाले फेसबुकिये ही हैं।
तंग आकर बहुत से तीसमारखाँ अपना अकाउंट बन्द कर भाग खड़े हुए।
फेसबुक के सामान्य लेखक हजारों लाइक बटोरते हैं जबकि खुद को धुरंधर_वामपंथी_चिंतक मानने वाले 10 पन्द्रह लाइक के लिए तरस रहे हैं, कमेंट ऑप्शन बन्द कर रखा है और उनका अरण्य रोदन सुनने कोई कुत्ता भी नहीं जाता।
कभी बड़े बड़े चैनलों में एक्सपर्ट बनकर चहकने वाले चेहरे बुरी तरह ट्रोल हुए हैं और लगभग विक्षिप्त सा जीवन जी रहे हैं।
दिग्विजय सिंह आज कहाँ है? कपिल सिब्बल मर गया या जिंदा भी है?
किसी ने कमेंट ऑप्शन खुला रखा है तो उसे जवाब देना भारी पड़ गया है।
उदाहरण अखिलेश यादव की पोस्ट के कमेंट पढ़ लीजिए।
फेसबुक की बात ही निराली है।
व्हाट्सएप पर बड़ी मेहनत से तैयार की गई, प्रच्छन्न पोस्टों को भीतर ही भीतर गिचपिच करने वाले भी प्रमाण के लिए फेसबुक पर आते हैं। उदाहरण मायावती के लिए लिखी जाने वाली पोस्टों की वर्तमान हालत देखिये।
और अब…
सिनेमा पर तो इनका ही वर्चस्व था लेकिन विवेक अग्निहोत्री की एक ही फ़िल्म से इन्हें अपना समग्र भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा है।
किकिया रहे हैं। मात्र तीन महीने पहले जब मोहनराव भागवत जी का ट्विटर अकाउंट डिलीट हुआ तो यही लोग ट्विटर को परम् निष्पक्ष घोषित कर रहे थे, आज सबसे बड़े कोठे की बाई लोकसभा में चिल्ला रही है, अबे बस भी करो, फाड़ोगे क्या???
उनके हथियार टूट रहे हैं।
बधाई हो सोशल मीडिया वीरों!!
मात्र 3×3इंच के छोटे से कीबोर्ड ने संसार की सबसे दुर्दांत, दुर्दमनीय, शातिर, कपटी लोगों को धूल चटा दी है।
उनका सारा अस्तित्व हिल गया है।
यह डर अच्छा लगा। यह कसावट बनी रहनी चाहिए। चारों तरफ से अपनी जकड़न ऐसी टाइट कीजिए कि ये भीतर ही भीतर दम तोड़ दें।
दशिन्पंथी इतिहासकार राम लालन पाण्डेय –

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