50 साल की सजा पाए विनायक दामोदर सावरकर -Veer Sawarkar-

सेल्युलर जेल पहुंचने के 11वें दिन दिनांक 15 जुलाई 1911 को छह महीने के लिए कोठरी में बंदी की सजा जो 15 जनवरी 1912 में समाप्त हुई।

11 जून 1912 को कागज मिलने के बाद एक माह के एकांतवास की सजा

19 सितंबर 1912 को दूसरे का लिखा कागज मिलने के बाद सात दिन तक खड़ी हाथबेड़ी की सजा

23 नवंबर 1912 को उनके पास दूसरे का लिखा पत्र मिलनेके बाद एक माह एकांतवास की सजा

30 दिसंबर 1912 से 2 जनवरी 1913 तक जेल में भूख हड़ताल

16 नवंबर 1913 को काम करने से मना करने पर 1 महीने कोठरी में कैद

8 जून 1914 काम करने से मना करने पर सात दिन तक हाथ बेड़ियां पहनकर खड़े रहने की सजा

16 जून 1914 को काम करने से फिर मना करने पर चार महीने तक जंजीरों में कैद

18 जून 1915 को काम करने से नकारने पर 10 दिन बेड़ियां पहनकर खड़े रहने की सजा

ये उन सजाओं में कुछ सजाएं हैं जो 50 साल की सजा पाए विनायक दामोदर सावरकर को दलदल को समतल बनाने और कोल्हू में से तेल निकालने के रूटीन कार्य के बाद अलग से दी जाती थी। आपको क्या लगता है सात दिन तक हथकड़ी लगाए खड़ा रहना आखिर कितना मुश्किल काम होगा। या एक कमरे में छह माह तक अकेले अपने ही मल मूत्र के बीच सड़ते रहना किस हद तक सहन करने योग्य होगा। यकीन मानिए ये जिनता भी मुश्किल होगा लेकिन उस उपहास, तिरस्कार और अपमान से कम ही है जो जीते जी और मरने के बाद भी उनके हिस्से में आया है।

 ब्रिटिश सरकार के खिलाफ तो उन्होंने हथियार उठाए थे लेकिन कांग्रेस और सेक्युलर ताकतें जिस अपराध की उन्हें सजा दे रही हैं वो मौन हिन्दू की वाणी बनने का पाप जो उन्होंने 50 साल की अंतहीन सजा पाने के बाद भी अंडमान की सेल्युलर की जेल में किया।

उन्होंने अपने समय की मुख्यधारा की तुष्टिकरण की राजनीति जो हिन्दू नरसंहार पाकर और फैलती ही रही थी, को अपनाने से मना कर दिया। उन्होंने उस हिन्दू समाज की वाणी बनना स्वीकार किया जिसे मेरी दुकान, मेरा मकान और मेरा पकवान इससे ज्यादा किसी बात से मतलब नहीं फिर चाहे वो ही दुकान सिंध से लेकर कश्मीर तक छोड़कर भागना पड़े।

इसलिए बड़े-बड़े आंगा खां पैलेस में गुलाब की खेती करने को त्याग बताने वाले  कालापानी में सड़-सड़ कर एक एक दिन काटने वालों की त्याग पर सवाल करते हैं।

लेकिन ये तिरस्कार, ये उपहास ये सब उनका कमाया यश है

जो बताता है कि मृत्यु के 50 वर्ष बाद भी भारत के 58वें, 59वें, 60वें, इस्लामिक राष्ट्र बनने के मार्ग में वो सबसे बड़ी बाधा हैं।

करीब 1.5 लाख पंक्तियां हैं जो सावरकर ने अपनी जेल की कोठरी में नाखुनों से लिखी और लिखकर याद की।

जब जेलर ने उनकी कोठरी पर कालिक पुतवा दी तो उन्होंने कहा- थैंक्यू मिस्टर बैरी ये सारी पंक्तियां तो मैं याद कर चुका हूं, अब मैं सोच ही रहा था अपनी नयीं रचनाएं कहां लिख पाऊंगा। आपने ये कालिख पुतवा कर मुझे नई स्लेट दे दी।

यद्यपि हम दोनों (सावरकर बंधु) को कहा गया है कि हम क्षमादान की कक्षा से बाहर हैं और इसके लिए हमें इस कोठरी में ही दुर्लेक्षित होकर ही रहना पड़ रहा है, फिर भी हमारे शोषित साथी और राजनीतिक बंदी सैकड़ों देशभक्तों की इस जेल से मुक्ति का जो दृश्य दिख रहा है उसे देखकर हमारा कष्ट भी हल्का हो गया है।

जिसके लिए पिछले आठ वर्षों यहां और दूसरी जगहों पर हड़ताल, पत्र व्यवहार, आवेदनों और वर्तमान पत्रों से जो कोशिशें हमने की हैं उसका फल हमें मिला इसका समाधान है।

1920 में स्वयं के प्रयासों से दूसरी क्रांतिकारी साथियों की रिहाई होने पर अपने छोटे भाई को लिखा वीर सावरकर का पत्र.

हम तो बिन्दु हैं सावरकर सिंधू थे- अटल जी

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