इन दिनों कश्मीर फाइल्स को लेकर जो विमर्श चल रहा है, वह इसलिए और महत्वपूर्ण हो जाता है क्योंकि यह चेतना का संघर्ष है। यह एक ऐसा संघर्ष है जिसने एकदम से ही जैसे सारे घाव खोलकर रख दिए। इसने हिन्दू चेतना को जैसे झकझोर कर रख दिया है।
ऐसा नहीं है कि यह दर्द हमें पता नहीं था, सभी को पता था। सभी को यह पता था कि कश्मीरी हिन्दू अपना घर बार छोड़कर चले आए थे। परन्तु मैदानों में लोगों को इस कहानी का दर्द उतना चुभ नहीं पा रहा था, क्योंकि चेतना को झूठे विमर्श के जाल में फंसा कर रखा हुआ था, उन्हें उस कश्मीरियत का घोल पिलाया जा रहा था, जो दरअसल जिहाद का ही रूप थी।
परन्तु जैसे ही यह फिल्म आई, इसने उस कश्मीरियत के घोल की चाशनी सोख ली और उसके भीतर का जहर भी बाहर ला दिया। जैसे ही उनके सामने वह इतिहास दृश्य रूप में आया, पहचान बोध जागृत हो गया, उसके बाद कुछ कहीं न रुका!
डॉ रजत मित्रा के उपन्यास में चेतना की इसी यात्रा को दिखाया गया है
हाल ही में मनोचिकित्सक डॉ रजत मित्रा का उपन्यास, इनफिडेल नेक्स्ट डोर अर्थात एक काफ़िर मेरा पड़ोसी, चेतना और पहचान की इसी यात्रा की बात करता है। नायक आदित्य, जो कश्मीरी पंडित है और जो एक मंदिर में पुजारी के परिवार का है, वह अपनी पहचान पाने के लिए कश्मीर आता है।
वह बनारस में रहता है, परन्तु उसकी जड़ें कश्मीर में हैं। वह पहुँचता है। और फिर वह पहुँचता है बट मजार पर! जहाँ पर जाकर वह असहज होता है। और फिर प्रोफ़ेसर बेग बट मजार पर एक लेख लिखते हैं:
“बट मजार – कश्मीरी पंडितों का भूला बिसरा इतिहास।”
इस लेख की शुरुआत यह कहते हुए हुई थी “जब मानव चेतना मौन हो जाती है तब स्मृति इतिहास को आगे लाती है।”
फिर उसमे कहा गया था कि आज के कई लोगों ने बट मजार के बारे में कभी सुना नहीं होगा। यह अजीब नाम दो शब्दों से आया है बट और मजार, जिसका मतलब है हिदुओं की कब्रगाह।
उस लेख में एक प्रश्न था “कैसे डल झील के बीचो बीच वाली जगह पर इतना अजीब नाम हो सकता है?” हममें से न जाने कितने लोग हैं जो शालीमार बाग़ और बाकी जगहों पर जाते समय उस टापू से होकर गुजरते हैं। मगर जब उन्हें यह पता चलेगा कि पठान काल में हिन्दुओं को वहां पर जबरन धर्म बदलने के लिए ले जाया जाता था और जब वह तैयार नहीं होते थे तो उन्हें टापू में जिंदा दफना दिया जाता था।
क्या डल झील के बीचों बीच एक कब्र गाह से वहां आने वाले लोग रुक जाएंगे और उनकी आँखों में आंसू आएँगे? क्या उन्हें यह परवाह होगी कि ऐसी भी कोई जगह कश्मीर में है?
मध्य युग में पंडितों का धर्मपरिवर्तन कई तरीकों से किया जाता था। उन्हें झील में डुबो दिया जाता था, उनके जनेऊ काट कर ढेर लगा दिया जाता था, परिवारों को एक साथ चलाया जाता था, भूखे प्यासे और उनके घर की स्त्रियों को यौन गुलाम बनाया जाता था।
डल झील के आसपास के सभी टापुओं का नाम किसी न किसी सुन्दर जगह के नाम पर है, जैसे सोइन लैंक या रोफ लैंक। एक कहावत भी है कि सूरज की किरणें सबसे पहले एक टापू पर पड़ती हैं, तो यही कारण है कि नाम सोइन लैंक पड़ा, मगर बट मज़ार के मामले में तो ऐसा कुछ भी नहीं है।
उस लेख में आगे लिखा गया था कि पंद्रहवीं शताब्दी में कश्मीर पठानों के अधीन आया था। तब तक कश्मीर की जनसँख्या हिन्दू थी और हिन्दू मुसलमान होने की अपेक्षा मरना पसंद करते थे। पठानों को लगा कि कश्मीर में जो इतने सारे हिन्दू मंदिर और बौद्ध मठ हैं, वह कश्मीर का अपमान है।
सुना जाता है कि उन्होंने एक दुष्ट योजना बनाई। वह सभी परिवारों को धकेल कर एक टापू पर ले गए और उनसे कहा कि वह या तो अपना धर्म बदल लें या फिर जिंदा जलने के लिए तैयार रहें।
मगर उन्हें मारने के लिए इतनी दूर क्यों लाना? वह उन्हें वहीं मार सकते थे। रैनावाड़ी के एक कश्मीरी पंडित ने उस पत्रकार को वह कहानी बताई “वह जो मुख्य जमीन थी, वहां पर खून खराबा नहीं करना चाहते थे। अगर हफ्ते लोग वहां मारे जाते तो वह एक बड़ा कब्रगाह बन जाता।”
उन दिनों यह परम्परा थी कि लोगों को जिंदा जमीन में गाढ़ दिया जाता था, और उनके सिर को बाहर छोड़ दिया जाता था, जिससे उनकी आँखों में अंतिम समय तक आतंक दिखता रहे। वह उनकी आँखों में डर देखना चाहते थे।
उस लेख की अंतिम पंक्ति थी “क्या आने वाले समय में कश्मीर में पंडितों के इस बलिदान को याद भी रखा जाएगा?”
इसके नीचे पठानों के शासन पर प्रोफ़ेसर बेग का इंटरव्यू था।
अगली सुनवाई में आदित्य यह देखकर हैरान हो गया कि इतने सारे लोग नोटबुक लेकर वहां आए हुए हैं।
जज ने उससे पूछा “क्या तुम्हें अपने बचाव में कुछ कहना है?”
“जी, मुझे कहना है!” आदित्य ने कहा “जेल में इतने दिनों में मुझे काफी समय सोचने का मिला और बहुत कुछ ऐसा हुआ जो मैं कहना चाहता हूँ।”
“तो जेल में आपके साथ अच्छा व्यवहार किया गया। क्या आप हमें यह बता सकते हैं?” जज ने इतनी जोर से कहा कि सभी को सुनाई दे जाए।
आदित्य ने कहा “नहीं, मुझे चार कैदियों के साथ रखा गया, जिन्होनें मुझे परेशान किया। मुझे शाकाहारी होने के बावजूद खाने के लिए मांस दिया गया।”
अदालत में सन्नाटा छा गया।
आदित्य ने कहना शुरू किया “कश्मीर में पंडितों का नरसंहार केवल मेरे ही कुछ लोगों की यादों में बसा है। लोग इसके बारे में बात करने से भी डरते हैं क्योंकि बाकी लोग सबूत मांगते हैं। और जब वह कोई लिखित सबूत नहीं दे पाते हैं तो उन्हें झूठा कहा जाता है। मगर जब स्मृति ही एक मात्र प्रमाण हो जाए तो आपके सामने और क्या प्रमाण लाया जा सकता है?”
“लोग अक्सर पूछते हैं कि क्यों किसी ने इस बारे में नहीं लिखा। इसके बारे में लिखने का मतलब था कि सिर धड से अलग हो जाना। मैं एक कहानी सुनाता हूँ। यह कहानी तीन सौ साल पहले की है। मेरे पूर्वजों का सिर धड से इसलिए अलग कर दिया गया गया क्योंकि उन्होंने इस्लाम में मतांतरित होने से इनकार कर दिया था और फिर उसके बाद मेरे पूर्वजों ने यहाँ वापस आने का साहस नहीं जुटाया कभी।
क्या यह एक प्रमाण नहीं है? जब मैं लौटा तो मेरा स्वागत पत्थरों से किया गया और मुझे बार बार यह अहसास दिलाया गया कि यह जमीन मेरी नहीं है। क्या मैं यहाँ बैठूं और इसके बारे में लिखूं या मैं यह सोचूँ कि मैं कैसे जिंदा रहूँ? मेरे लिए मेरे मंदिर के टूटे खम्भे ही प्रमाण है।
मेरी जड़ों की कहानी जो मुझे यहाँ तक खींच कर लाई है, वही प्रमाण है। और क्या यह सच नहीं है कि मेरे लोग इस जमीन से छ बार पहले भी जा चुके हैं, क्योंकि उनका धर्म अलग था? हर बार जब वह भागे तो उनकी आत्मा कई बार मरे।”
“जब मैंने कश्मीर की सड़कों पर चलना शुरू किया तो मैं लोगों से सुनता था कि अंतिम पलायन होने वाला है, जो इस जमीन से पंडितों को एकदम बाहर फेंकने का अधूरा काम पूरा करेगा और फिर कश्मीर पूरी तरह इस्लामिक हो जाएगा। हर किसी ने इसे हमारी जमीन का अंतिम सच समझ लिया है।
क्या कोई पूछेगा कि प्रमाण क्या है? उसे पहले लाओ। इस नफरत और हिंसा वाले माहौल में कश्मीरी पंडितों के बारे में जब सारा इतिहास ही मिटा दिया जाएगा तो प्रमाण लिखने के लिए रह ही कौन जाएगा?”
“लोग यह भूल जाते हैं कि यह स्मृति ही है जो आपके शोषण और अत्याचार के खिलाफ सबसे बड़ा सबूत होता है।”
क्या है बट मज़ार और क्या है इतिहास
बट मजार अर्थात हिन्दुओं को मारने का स्थान, और जहां क़त्ल किए गए सैकड़ों हिंदुओं को सामूहिक रूप से दफनाया गया था, वह अभी भी श्रीनगर में मौजूद है, जो आज भी कश्मीरी हिंदुओं को उन अत्याचारों की याद दिलाता है जो उनके पूरे समुदाय पर हुए थे। दक्षिण में मैदानी इलाकों के रास्ते में एक शहर को “बटावथ” के नाम से जाना जाने लगा, जिसे अब बटोटे के नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ है बट्टा का पथ! (‘बट्ट’ कश्मीरी हिंदू या पंडित के लिए एक और शब्द है)
जो डॉ रजत ने लिखा कि लोग यह भूल जाते हैं कि यह स्मृति ही है जो आपके शोषण और अत्याचार के खिलाफ सबसे बड़ा सबूत होता है।” यह इतना बड़ा सत्य है कि इसी स्मृति को विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ने झकझोर दिया! यह हिन्दुओं की चेतना की यात्रा का ऐसा बिंदु है, जहाँ से आगे के विमर्श तैयार होंगे, परन्तु जितना विवेक अग्निहोत्री की झकझोरती है उतना ही डॉ रजत मित्रा की यह पुस्तक विमर्श उत्पन्न करती है और वह चेतना की स्मृति का विमर्श!
हर उस स्थान पर जहाँ हिन्दुओं को मारा गया, जहाँ जहाँ उनके जा!ति विध्वंस के प्रयास हुए, वहाँ वहाँ हिन्दुओं के जाते ही वह सभी स्मृतियाँ जाग जाएँगी जो हमारे पूर्वजों की हैं, जो हमारी हैं, जो हमारी हिन्दू जाति की हैं.