कोई सगा नहीं जिसे इन्होंने डसा नही – मुस्लिमों से सावधान सतर्क रहे(कहानी)-

कोई सगा नहीं जिसे इन्होंने डसा नही – मुस्लिमों से सावधान सतर्क रहे और आपस में एकजुट रहिए
पाकिस्तान में कहीं करियाला गाँव में दो भाईयों साहेबदित्ता और रामदित्ता के परिवार बसे हुए थे….
बाकि भाई भी अलग अलग पाकिस्तान के गाँवों में आसापास ही रहते थे….
साहबदित्ता का अपना बहुत बड़ा फलों का बाग था….बाग के चारों तरफ बाड़ पर चमेली के फूल महकते थे…
भरा पूरा खुशहाल परिवार था…
साहबदित्ता के तीन बेटे और चार बेटियाँ थी…
सबसे बड़ा बेटा शेरसिंह फिर जवाहर लाल और तीसरा मोतीराम…
चार बेटियों में सबसे छोटी राजकुमारी आठ साल की थी….
उस समय वक्त और जरूरत के हिसाब से घर के सबसे बड़े बेटे को ”खालसा” बनाया जाता था…मतलब वो सिखी वेष रख कर आजीवन खालिस रहता था….तो शेरसिंह केशधारी सिख थे…
रामदित्ता की चार बेटियाँ और एक बेटा…
रामदित्ता के जमाई और दोहता दोहती भी उनके पास ही रहते थे….
बाग के साथ साथ दूध का भी थोड़ा व्यापार था…पैसे की ईतनी ललक किसी को ना थी…तो ज्यादा जोड़ने की तरफ किसी का ध्यान ना जाता था….
बड़ों की जेब से ज्यादा बच्चों की गुल्लक में पैसे रहते थे…एसा बताया गया मुझे…
शेरसिंह दूध सप्लाई करते थे और जवाहर सुबह डाक इकठ्ठा कर डाक खाने ले जाते और वहाँ से डाक लाकर गाँव में बाँटते थे…क्षेत्र का डाकघर पड़ोस के गाँव में था….
गाँव का मुखिया एक सैयद था…जिसके पास अकूत पैसा था…
फिर सन 47 हुआ….पाकिस्तान का हिन्दु पशोपश में था….कि उन्हें क्या करना चाहिये…वहीं बसे रहें या सामान पैसा इकठ्ठा कर निकल लें…
उस समय संचार साधन इतने सुलभ ना थे….
एक दिन शेरसिंह दूध देने कहीं जा रहे थे तो उन्होंने ध्यान दिया…कि चौक चौपालों पर खडे़ टोपीधारी उन्हें अलग ही निगाह से देख रहे थे…उसे अजीब लगा…
गाँव से बाहर निकल कर अचानक उन्हें झाड़ियों में बैठा एक साधु मिला…
उसने आवाज लगाई…
”ओ सरदार…कित्थे चल्ला…”
शेर सिंह रुके…तो साधु ने बताया…कि ”डायरेक्ट एक्शन डे” हो गया है….चुपचाप घर की तरफ निकलो और परिवार सहित पास के गुरुद्वारे में शरण लो…जो कुछ है…चुपचाप समेट कर हिन्दुस्तान चले जाओ….और हाँ….अकेले नहीं….3-400 का जत्था बना कर निकलना…
शेरसिंह उल्टे पाँव गिरते पड़ते गाँव की तरफ भागा….
खबर दूसरे गाँव डाक देने गये जवाहर को भी मिली….तो वो भी गाँव की तरफ भागे…
जब तक गाँव पहुँचे….खबर आग की तरह फैल चुकी थी…
गाँव का प्रधान सैयाद…हिन्दुओं कर घरों में जा जाकर बोल रहा था…आप आराम से रहिये…आपको हमारे रहते यहाँ कोई खतरा नहीं है….
शाम होते होते सब अपने अपने घरों में दुबक चुके थे…हर कोई अपने अपने सामर्थ्य के हिसाब से हथियार और सेफ्टी का सामान अरेंज करके बैठा था…
साहबदित्ता और रामदित्ता सपरिवार खौफ के माहौल में बैठा आपस में विचार कर रहे थे…
साहब दित्ता : ”की करिये हुण…ओ ताँ कैंदे ने या ताँ मुसलमान बणो…या असाँ तुवानु वड्ड देवणा है…
सब छड्ड के जो पया है ओ समेटो….असाँ हिन्दुस्तान चलने हाँ…असाँ अपना धर्म नई छड्डना…”
रामदित्ता : ”ना…मैं नई जावणा…ना मैं अपनी जमीन छड्डाँगा…ना मैं मुसलमान बणसां…ना किसी मुसलमान दे हत्थों मरसां…”
रामदित्ता की आवाज दृढ़ थी….शायद वो कोई निश्चय कर चुके थे…
तभी दरवाजे की कुण्डी खड़की…
पड़ोस में रहने वाला मुसलमान की आवाज आयी…
”साहबेया….”
सबके रौंगटे खड़े हो गये…
”साहेबया…छेत्ती दरवाजा खोल…कोई वेख लेसी….”
डरते डरते दरवाजा खोला…तो वो पडोसी बाहर से ही बोला…
”तुसाँ फटाफट एत्थों निकल जाओ…ए सैयद तवानु मरवाण वास्ते रोक गया है…ए कह रहया सी…एना काफिराँ दी जनानियाँ कुड़ियाँ रख के सारे मर्दाँ नूं मार देसायें….
तुसाँ फटाफट एत्थूं निकल जाओ….”
इतना कह कर वो तेजी से चला गया…
सब के रौंगटे खडे हो गये थे…
किसी को विश्ववास नहीं हो रहा था…जो सैयद थोड़ी देर पहले इतनी सहानुभूति भरी बातें करके गया…उसका असली चेहरा इतना भयावह होगा…
साहबदित्ता ने फैसला सुना दिया…कि जो है समेटो…हम लोग तड़के पौ फटते ही पास के गुरुद्वारे में शरण लेंगे…
सब बेचैनी से अपने कमरों में चले गये…
नींद किसे आनी थी…
जो मिला…समेट रहे थे….
सुबह पौ फटे और सब निकलते…उस से पहले ही कुछ हिन्दुओं ने दरवाजा खड़काया…और बोले….
”पड़ोस दे पिण्ड च गुरखे(नेपाली फौजी) आये ने…ओ आख रये ने जिनां जिनां ने हिन्दुस्तान जावणा है…ओ छेत्ती उत्थे पहोंचे….
असां 70-80 बन्दे उत्थे ही चल्ले हाँ….जे तुसां वी चलना है तां फटा फट चल्लो….”
एसे हालात की किसी को उम्मीद ना थी…साहेबदित्ता ने रामदित्ता को आवाज लगाई….
रामदित्ता कमरे के दरवाजे पर खड़ा सब सुन रहा था…उसने जवाब दिया…
”तुसां निकलो…मैं पिछ्छे पिछ्छे औणा हाँ…”
जो हिन्दु बुलाने आये थे उन्होंने कहा कि जो तैयार है फटाफट चले…वरना थोडी देर में सिक्खों का एक जत्था भी इधर से निकलने वाला है…जो रह जाये …उनके साथ आजाये…
अकेले ना आने की सख्त हिदायत दी थी साथ में…
साहेबदित्ता अपने परिवार के साथ उनके साथ हो लिया….
रामदित्ता अपने परिवार के साथ वहीं रुक गया…
दोपहर तक साहेबदित्ता वहाँ पहुँच गये…
शाम तक सिक्खों का जत्था भी वहाँ पहुँच गया….
साहबदित्ता और उनका परिवार उनके बीच रामदित्ता और परिवार के अन्य लोगों को ढूँढते रहे…पर कोई ना मिला…
रात हो चली थी….पर रामदित्ता और परिवार का कोई अता पता नहीं था…
साहबदित्ता गुरखों के प्रधान के पास गये…और सारी बात बतायी…
वो बोला…
”सुबह हम आप सब को लेकर हिन्दुस्तान की तरफ पैदल ही कूच करेंगे….अमृतसर जाने वाली रेलगाड़ियों को मुसलमान रोक कर काट रहे हैं…किसी को जिन्दा नहीं छोड़ रहे….
और हाँ….हमारे कुछ जवान आपके कहने पर आपके बताये गाँव में मोटरसाइकल पर एक चक्कर लगा आयेंगे…हो सकता है…आपके भाई का परिवार किसी और जत्थे के साथ निकला हो…”
सुबह पौ फटते ही सभी हिन्दुओं को फौजियों ने पूरे दिन के लिये चने की पोटली और गुड़ भोजन के रूप में दिये और हिन्दुस्तान की तरफ जाने के लिये चारों तरफ से घेराबन्दी कर के चलना शुरु कर दिया…
कुछ फौजी मोटरसाइकल पर करियाला गाँव की तरफ चले गये…
तेज धूप में पैदल जंगलों के रास्ते चलते अभी कुछ किलोमीटर ही हुए होंगे….कि फौजियों ने कुछ देर आराम करने के लिये कहा….
अभी सब बैठे ही थे….कि दूर से मोटरसाइकलों की आवाज सुनाई दी…
ये वही मोटरसाईकलें थी…जो साहेबदित्ता के गाँव रामदित्ता का पता लेने गयी थी…
आवाज सुनते ही साहेबदित्ता उनकी तरफ भागा…पीछे पीछे साहब दित्ता का परिवार…और उनके पीछे अन्य लोग…
मोटर साइकल जवान जैसे ही पहुँचे…सबने उन्हें घेर लिया….
एक जवान ने पूछा….
”साहेब्या कौन है…”
साहेबदित्ता आगे आया…
”रामदित्ता तेरा भाई था….”
सुनते ही साहेबदित्ता के होश फाख्ता होने लगे….
”था”
जवान बोला…
”जब हम तेरी गली में पहुँचे…तो तेरे घर के बाहर खून ही खून फैला था…
नाली गली…सब खून से लाल था….
पड़ोसी ने बताया कि रात को मुसलमानों का झुण्ड आया था…6-700 रहे होंगे….नारा ए तकबीर के नारों के बीच उन्होंने दरवाजा पीटना शुरु किया….तो अन्दर से ”बोले सोनेहाल सत्श्रीअकाल” की आवाजों के साथ महिलाओं और बच्चों के चीखने की आवाजें आने लगी…ये सब सुन कर झुण्ड आगे बढ़ गया…”
सुन कर सब के रौंगटे खड़े हो गये…
”दरवाजा अभी तक अन्दर से बन्द ही था…पर अन्दर किसी प्रकार की कोइ आहट ना थी….
हमने दरवाजा तोड़ा…अन्दर पहुँचे तो अन्दर के नजारे ने हमें भी तडपा दिया…
अन्दर रामदित्ता ने अपने पूरे परीवार…
अपनी बीवी…अपनी चार लड़कियों…दो दामादों…एक बेटे…दो दोहते और एक दोहती को खुद अपने हाथों से गंडासे से एक एक कर के काट दिया था….
और सबको मारने के बाद खुद को फाँसी लगा ली थी…”
ये सब सुनकर साहेबदित्ता और परिवार समेत सभी सुनने वालों में चीखपुकार मच गयी….
”रामदित्ता बड़ी गैरत आला निकलया…
ना अपनी जमीन छड्डी…ना मुसलमान बणया…ना किसे मुसलमान दे हत्थी मरया….
अपनी हत्थों सारया नू मार दित्ता….अपणी इज्जत वी नी जाण दित्ति…”
कहते कहते साहेबदित्ता की सबसे छोटी बेटी ”राजकुमारी” की जबान एक बार फिर लड़खड़ा गयी और आँखें डबडबा गयी…
और ये कहानी जाने कितनी बार सुन चुका हूँ मैं…हर बार ये सुनाते हुए गाँधी और नहरू को जिन जिन गालियों से अलंकृत करती हैं वो…यहाँ लिख दूँ तो कांग्रेसी मुझ पर केस कर दें…
ये एक बहुत बड़ी वजह है….कि मैं जिन्दगी में गाँधीयों को वोट देने या पसन्द करने की सोच भी नहीं सकता….

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