दरअसल केजरीवाल जी के ‘द कश्मीर फाइल्स’ पर दी गई उनकी प्रतिक्रिया को देखने के बाद से यह सब मेरे दिमाग में बार-बार आ रहा है
2004 में रामानंद सागर के पोते, अमृत सागर अपनी पहली फिल्म बनाने के सिलसिले में मनोज बाजपेयी से भेंट की। तब वे अपनी कहानी ‘पेंट’ पर मूवी बनाना चाहते थे। पर यह कहानी मनोज को नहीं जमी। उन्होंने कहा कि भले कुछ महीने ले लीजिए, लेकिन कोई दूसरी बढ़िया-सी कहानी लेकर आइए।
कुछ महीने के बाद जब दुबारा भेंट हुई, तो अमृत सागर ने मनोज से कहा कि उनके पास उनके पिताजी, मोतीलाल सागर की 1973 में लिखी एक कहानी है। यह 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में 6 कैदियों की सच्ची और दर्दनाक घटनाओं पर आधारित है।
कहानी पूरा सुनते ही मनोज ने कहा कि आपको सबसे पहले इसी पर फिल्म बनानी चाहिए। तब अमृत ने कहा कि लेकिन, इसमें तो लड़ाई के दृश्य होंगे, काफी खर्चा होगा।
मनोज ने उचित तरीके से समझाया। फिर यह कहने पर कि अभी तो यह आइडिया है, पर इसको फिल्म-स्क्रिप्ट के रूप में भी लिखना होगा; मनोज ने अपने पुराने दोस्त पीयूष मिश्रा का नाम सुझाया। पीयूष उन्हीं दिनों मुंबई आए हुए थे, और काम की तलाश में थे।
अमृत और पीयूष, दोनों ने मिलकर कड़ी मेहनत करके पूरी पटकथा लिखी
अमृत और पीयूष, दोनों ने मिलकर कड़ी मेहनत करके पूरी पटकथा लिखी। फिल्म का नाम रखा गया—’1971’। इसके बाद कलाकारों का चयन करना शुरू हुआ। मनोज बाजपेयी और पीयूष मिश्रा तो थे ही। दीपक डोबरियाल की यह पहली हिंदी फिल्म थी।
रवि किशन ने खुद काम माँगा, ऑडीशन भी दिया। उनकी कलाकारी देखकर सब खुश हो गए, सो उनको भी लिया गया। फिर मानव कौल के साथ अन्य का भी चयन हुआ। दिलचस्प यह है कि इसमें कोई अभिनेत्री नहीं थी।
अल्बत्ता इसकी शूटिंग 2005 में ही पूरी हो गई थी, लेकिन किसी कारणवश 2007 में प्रदर्शित हुई। पर जाने क्यों इसे कायदे से रिलीज नहीं किया गया। कदाचित उस दिन आधे दर्जन से अधिक अन्य फिल्मों के रिलीज होने का प्रभाव पड़ा हो।
रामरामा पुराने ब्राजील की जनजाति (पिंडोराम) और सिंधु बनाम ब्राजील की लिपि
इस फिल्म से मनोज और पूरी यूनिट को ढेर सारी उम्मीदें थीं। लेकिन, होता है न कि कुछ फिल्मों की अपनी-अपनी किस्मत या परिस्थिति होती है। ऐसी कई हैं(like) , जो काफी बेहतरीन होते हुए भी चल नहीं पातीं, और बाद में जाकर क्लासिक्स में भी शुमार हो जाती हैं।
रिलीज के दिन अमृत अपने एक दोस्त के साथ मुंबई के एक थिएटर में गए। वहाँ का दृश्य देखकर उनका दिल बुरी तरह टूट गया। पूरे हॉल में केवल 2 ही दर्शक थे।
और, वे दोनों दर्शक कोई और नहीं, बल्कि वे ही दोनों थे। एक तो उनकी पहली फिल्म थी, ऊपर से उनके पिताजी ने ही उन पर विश्वास जताते हुए प्रोडक्शन किया था। सबसे बढ़कर, ‘सागर’ परिवार की प्रतिष्ठा और विरासत का सवाल था।
मनोज, अमृत और बाकियों का भी दर्द-मलाल और ज्यादा बढ़ गया
ये सब होने पर भी मनोज को इतना भरोसा था कि उन्होंने अमृत से कहा कि इसे नेशनल अवार्ड के लिए भेज दो। इच्छा न होते हुए भी उनके ही दबाव में भेज दिया गया।
2008 में राष्ट्रीय पुरस्कारों की घोषणा ही नहीं की गई। धीरे-धीरे यह फिल्म सबकी याद से निकलती गई। लेकिन, 2009 में इसे 2 राष्ट्रीय पुरस्कारों के लिए विजेता घोषित कर दिया गया। बेस्ट हिंदी फिल्म और बेस्ट ऑडियोग्राफी के लिए।
यह देखकर तो मनोज, अमृत और बाकियों का भी दर्द-मलाल और ज्यादा बढ़ गया कि काश इसे सही ढंग से रिलीज किया गया होता, तो बॉक्स ऑफिस पर धमाल मचा सकती थी!
बीते लॉकडाउन में ट्विटर पर किसी ने मनोज से पूछा कि सर, मैं आपकी ‘1971’ देखना चाहता हूँ, कहाँ देख सकता हूँ? इस पर मनोज ने अमृत को टैग कर दिया। अमृत ने यह ट्वीट देखा, तो अपने यूट्यूब के चैनल पर अपलोड कर दिया।
फिर तो धमाल ही मच गया! केवल 45 दिनों के अंदर ही 2 करोड़ से अधिक लोगों ने इसे देख लिया था। (But) आज का आँकड़ा तो 4.6 करोड़ दिखा रहा है।
यह किस्सा क्यों साझा कर रहा हूँ?
दरअसल केजरीवाल जी के ‘द कश्मीर फाइल्स’ पर दी गई उनकी प्रतिक्रिया को देखने के बाद से यह सब मेरे दिमाग में बार-बार आ रहा है।
सर्वप्रथम तो केजरीवाल जी को यह समझ लेना चाहिए कि जो फिल्म अपने जिन परिणामों का हकदार होती हैं, उनको आज नहीं तो कल कैसे भी पा ही लेती हैं! इसके कई सारे ज्वलंत उदाहरण हैं।
दूसरा, उनको शायद यह पता ही नहीं हो कि यूट्यूब-ओटीटी आजकल क्या मायने रखता है! जब 13 साल के बाद 50 साल पहले की लिखी कहानी पर बनी फिल्म यूट्यूब पर धूम मचा सकती है, तो अभी-अभी प्रदर्शित हुई फिल्म यूट्यूब पर आने पर क्या कमाल कर देगी, यह कोई भी समझ सकता है! जबकि हजारों घर की महिलाओं-किशोरों ने अभी इसे देखा ही नहीं है।
उनको चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है
फिर भी उनको चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जल्द ही इससे जुड़ी अन्य घटनाओं पर भी फिल्म बनकर ओटीटी पर आ रही है। तब हम देखेंगे कि उनकी इच्छापूर्ति होने पर वे बहुत खुश होते हैं, या क्या गुल खिलाते हैं। लाजिम है कि हम भी देखेंगे!
सबसे बढ़कर यह कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ को एक भी बंदा फिल्म के रूप में ले ही नहीं रहा है, चाहे कोई कितना भी विरोधी ही क्यों न हो। तभी तो इसकी तकनीकी पहलुओं पर कोई बात नहीं कर रहा।
उन्होंने कहा कि कोई करोड़ों कमाकर तुम्हें बेवकूफ बना गया
उन्होंने कहा कि कोई करोड़ों कमाकर तुम्हें बेवकूफ बना गया! कदाचित उनको पता ही न हो कि यह जो जनसैलाब उमड़ा है, केवल फिल्म देखने के लिए ही नहीं उमड़ा है।
भावनाओं की बात तो है ही, साथ ही इसलिए भी उमड़ा है कि बाकी निर्माता-निर्देशकों का भी हौसला बुलंद हो, और ऐसी फिल्में लगातार बनती रहें।
अब ऐसे में करोड़ों तो कमाना ही था, पर यह कमाई बेवकूफ बनाकर नहीं की गई है, बल्कि खुद अपनी ही इच्छा से आगे का सोचकर दी गई है!
बाकी लोग उनके और कारनामों को भूल तो सकते हैं
मुझे तो उनके पूर्व में किए गए बाकी कारनामें भी याद हैं, लेकिन अब पूर्णतः विश्वास भी हो गया है कि बाकी लोग उनके और कारनामों को भूल तो सकते हैं.
पर यह देश हमेशा याद रखेगा कि अपने ही देश के अपने ही 5 लाख लोगों के सबसे भयानक-मर्मांतक नरसंहार इत्यादि पर देश की राजधानी का एक मुख्यमंत्री उन पर सांत्वना रूपी एक भी मलहम लगाने के बजाय बेशर्मी से हँसते हुए उसे सरेआम झूठा करार देकर नमक छिड़क दिया था!
लेकिन, यह तो शत-प्रतिशत प्रमाणित हो ही गया कि चोट बिल्कुल सही जगह पर लगी है!